April 28, 2015

Nataraja -The Lord (or King) of Dance), is a depiction of the Hindu God Shiva as the cosmic dancer who performs his divine dance to destroy a weary universe and make preparations for the god Bramha to start the process of creations.


Natraja the dancing form of Lord Shiva, - the cosmic dancer - represents the constant bio dance of life creation, maintenance and transformation and indicates the perfect balance between life and death, symbolic synthesis of the central tenets of this Vedic religion. The term 'Nataraj' means 'King of Dancers' (Sanskrit nata = dance; raja = king). It also reminds us of the balance between form and void, as well as the time before the divine created form from the void. 


The Vital Form & Symbolism:

The statues of Natraj are framed by a circle representing cosmic energy; the four hands represent the cardinal directions. He is dancing, with his left foot elegantly raised and the right foot on a prostrate figure — 'Apasmara Purusha', the personification of illusion and ignorance over whom Shiva triumphs.


The fiery ring surrounding Shiva, prahabhamandala, represents the universe with all its illusion, suffering and pain.  The outer edge is fire the inner edge the waters of the oceans.  The surrounding flames represent the manifest Universe.

The crescent moon in his matted hair keeps Kama, the god of nightly love, alive. Through the waxing and the waning of the moon Shiva creates different seasons and rejuvenates life. The stoic face of Shiva represents his neutrality, thus being in balance

The upper right hand holds a small drum shaped like an hourglass that is called a ḍamaru in Sanskrit. A specific hand gesture (mudra) called ḍamaru-hasta (Sanskrit for "ḍamaru-hand") is used to hold the drum. It symbolizes sound originating creation or the beat of the drum is the passage of time.

The upper left hand contains Agni or fire, which signifies destruction. The opposing concepts in the upper hands show the counterpoise of creation and destruction or the fire of life.

The second right hand shows the Abhaya mudra (meaning fearlessness in Sanskrit), bestowing protection from both evil and ignorance to those who follow the righteousness of dharma.
The second left hand points towards the raised foot which signifies upliftment and liberation. It also points to the left foot with the sign of the elephant which leads the way through the jungle of ignorance.


His uplifted left foot, grants eternal bliss to those who approach him. The other foot treads firmly upon the dwarf of ignorance, allowing the birth of knowledge.

The dwarf on which Nataraja dances is the demon Apasmara (Muyalaka. as known in Tamil), which symbolises Shiva's victory over ignorance. It also represents the passage of spirit from the divine into material.
As the Lord of Dance, Nataraja, Shiva performs the tandava, the dance in which the universe is created, maintained, and dissolved. Shiva's long, matted tresses, usually piled up in a knot, loosen during the dance and crash into the heavenly bodies, knocking them off course or destroying them utterly.
The snake swirling around his waist is kundalini, the Shakti or divine force thought to reside within everything. This also parallels the cords of life warn by the brahmins to represent the second rebirth.

The Significance of Shiva's Dance:
This cosmic dance of Shiva is called 'Anandatandava,' meaning the Dance of Bliss, and symbolizes the cosmic cycles of creation and destruction, as well as the daily rhythm of birth and death. According to Coomerswamy, the dance of Shiva also represents his five activities: 'Shrishti' (creation, evolution); 'Sthiti' (preservation, support); 'Samhara' (destruction, evolution); 'Tirobhava' (illusion); and 'Anugraha' (release, emancipation, grace).

The dance is a pictorial allegory of the five principal manifestations of eternal energy:[5]
  • 'Srishti' (सृष्टि) - creation, evolution
  • 'Sthiti' (स्थिति) - preservation, support
  • 'Samhara' (संहार) - destruction, evolution
  • 'Tirobhava' (तिरोभाव) - illusion
  • 'Anugraha' (अनुग्रह) - release, emancipation, grace
Thus Tandava symbolizes the cosmic cycles of creation and destruction, as well as the daily rhythm of birth and death.

Tandava, as performed in the sacred dance-drama of southern India, has vigorous, brisk movements. Performed with joy, the dance is called Ananda Tandava. Performed in a violent mood, the dance is called Rudra Tandava. In the Hindu texts, at least seven types of Tandava are found: Ananda Tandava, Tripura Tandava, Sandhya Tandava, Samhara Tandava, Kali (Kalika) Tandava, Uma Tandava and Gauri Tandava.[4] However, some people believe that there are 16 types of Tandava.


“आकाशं लिंगमित्याहु: पृथ्वी तस्य पीठिका। 
आलय: सर्व देवानां लयनार्लिंगमुच्यते ॥ 

आकाश (वो विस्तृत महाशून्य जिसमे सम्पुर्ण ब्रह्माण्ड समाहित है) लिंग का स्वरूप है और पृथ्वी उसकी पीठिका (आधार) है। प्रलय काल में समस्त सृष्टि तथा देवगण आदि इसी लिंग मे समाविष्ट हो जाते हैं।


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February 05, 2015

Mahshivratri Blessed Wishes !!!

Wishing you all a very happy Mahashivratri. God bless you all with lots and lots of happiness, your wishes will be accomplished.





Shivaratri means auspicious darkness. Devotees must spend the night of Shivaratri by chanting with full sincerity the name of Lord Shiva and seek His divine blessings.






May Lord Shiva shower his benign blessings on you and your family. May happiness and peace surround you with his eternal love and strength.




Bless us with the happy & peaceful life with noble wisdom. May there be peace in every home!!!





May Lord Shiva shower blessings on all and give power and strength to everyone facing difficulties in there lives.





Happy Shivaratri to all. Bhagwan Bholenath, I pray to you for all the people in this world. Please give everyone happiness, peace and lots of smiles.





Shivratri blessings to you and your family. May the almighty Lord Shiva bless you all with good things and perfect health.






On the occasion of Mahashivratri I pray that God bless us always. I keep fast on that day and I pray that God give me what I want.



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♦♦ Mahashivratri Story- महाशिवरात्रि कथा ♦♦

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Mahashivratri Story- महाशिवरात्रि कथा ( हिन्दी में )


पूर्व काल में चित्रभानु नामक एक शिकारी था। जानवरों की हत्या करके वह अपने परिवार को पालता था। वह एक साहूकार का कर्जदार था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी। शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी।

शाम होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार खोजता हुआ वह बहुत दूर निकल गया। जब अंधकार हो गया तो उसने विचार किया कि रात जंगल में ही बितानी पड़ेगी। वह वन एक तालाब के किनारे एक बेल के पेड़ पर चढ़ कर रात बीतने का इंतजार करने लगा।

बिल्व वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला। पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरती चली गई। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बिल्वपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी हिरणी तालाब पर पानी पीने पहुँची।

शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, हिरणी बोली, ‘मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब मार लेना।’ शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और हिरणी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई। प्रत्यंचा चढ़ाने तथा ढीली करने के वक्त कुछ बिल्व पत्र अनायास ही टूट कर शिवलिंग पर गिर गए। इस प्रकार उससे अनजाने में ही प्रथम प्रहर का पूजन भी सम्पन्न हो गया।

कुछ ही देर बाद एक और हिरणी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख हिरणी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, ‘हे शिकारी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूँ। कामातुर विरहिणी हूँ। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी।’ शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। इस बार भी धनुष से लग कर कुछ बेलपत्र शिवलिंग पर जा गिरे तथा दूसरे प्रहर की पूजन भी सम्पन्न हो गई।

तभी एक अन्य हिरणी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि हिरणी बोली, ‘हे शिकारी!’ मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊँगी। इस समय मुझे मत मारो। शिकारी हँसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे बच्चे भूख-प्यास से व्यग्र हो रहे होंगे। उत्तर में हिरणी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। हे शिकारी! मेरा विश्वास करों, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ।

हिरणी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में तथा भूख-प्यास से व्याकुल शिकारी अनजाने में ही बेल-वृक्ष पर बैठा बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला, हे शिकारी! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन हिरणियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊँगा।

मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, ‘मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।’

शिकारी ने उसे भी जाने दिया। इस प्रकार प्रात: हो आई। उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से अनजाने में ही पर शिवरात्रि की पूजा पूर्ण हो गई। पर अनजाने में ही की हुई पूजन का परिणाम उसे तत्काल मिला। शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया। उसमें भगवद्शक्ति का वास हो गया।

थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके।, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसने मृग परिवार को जीवनदान दे दिया।

अनजाने में शिवरात्रि के व्रत का पालन करने पर भी शिकारी को मोक्ष की प्राप्ति हुई। जब मृत्यु काल में यमदूत उसके जीव को ले जाने आए तो शिवगणों ने उन्हें वापस भेज दिया तथा शिकारी को शिवलोक ले गए। शिव जी की कृपा से ही अपने इस जन्म में राजा चित्रभानु अपने पिछले जन्म को याद रख पाए तथा महाशिवरात्रि के महत्व को जान कर उसका अगले जन्म में भी पालन कर पाए।

शिवकथा का संदेश

शिकारी की कथानुसार महादेव तो अनजाने में किए गए व्रत का भी फल दे देते हैं। पर वास्तव में महादेव शिकारी की दया भाव से प्रसन्न हुए। अपने परिवार के कष्ट का ध्यान होते हुए भी शिकारी ने मृग परिवार को जाने दिया। यह करुणा ही वस्तुत: उस शिकारी को उन पण्डित एवं पूजारियों से उत्कृष्ट बना देती है जो कि सिर्फ रात्रि जागरण, उपवास एव दूध, दही, एवं बेल-पत्र आदि द्वारा शिव को प्रसन्न कर लेना चाहते हैं। इस कथा में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस कथा में ‘अनजाने में हुए पूजन’ पर विशेष बल दिया गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि शिव किसी भी प्रकार से किए गए पूजन को स्वीकार कर लेते हैं अथवा भोलेनाथ जाने या अनजाने में हुए पूजन में भेद नहीं कर सकते हैं।
वास्तव में वह शिकारी शिव पूजन नहीं कर रहा था। इसका अर्थ यह भी हुआ कि वह किसी तरह के किसी फल की कामना भी नहीं कर रहा था। उसने मृग परिवार को समय एवं जीवन दान दिया जो कि शिव पूजन के समान है। शिव का अर्थ ही कल्याण होता है। उन निरीह प्राणियों का कल्याण करने के कारण ही वह शिव तत्व को जान पाया तथा उसका शिव से साक्षात्कार हुआ।
परोपकार करने के लिए महाशिवरात्रि का दिवस होना भी आवश्यक नहीं है। पुराण में चार प्रकार के शिवरात्रि पूजन का वर्णन है।मासिक शिवरात्रि, प्रथम आदि शिवरात्रि, तथा महाशिवरात्रि। पुराण वर्णित अंतिम शिवरात्रि है-नित्य शिवरात्रि। वस्तुत: प्रत्येक रात्रि ही ‘शिवरात्रि’ है अगर हम उन परम कल्याणकारी आशुतोष भगवान में स्वयं को लीन कर दें तथा कल्याण मार्ग का अनुसरण करें, वही शिवरात्रि का सच्चा व्रत है।

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Mahashivratri Story- In English

In the Shanti Parva of the Mahabharata, Bhishma, whilst resting on the bed of arrows and discoursing on Dharma, refers to the observance of Maha Shivaratri by King Chitrabhanu.

The Mahashivratri story goes as follows :

Once upon a time King Chitrabhanu of the Ikshvaku dynasty, who ruled over the whole of Jambudvipa, was observing a fast with his wife, it being the day of Maha Shivaratri.

The Sage Ashtavakra came on a visit to the court of the king.

The sage asked, "O king! why are you observing a fast today?"

King Chitrabhanu explained why. He had the gift of remembering the incidents of his previous birth.

The king said to the sage: "In my past birth I was a hunter in Varanasi. My name was Suswara. My livelihood was to kill and sell birds and animals. One day I was roaming the forests in search of animals. I was overtaken by the darkness of night. Unable to return home, I climbed a tree for shelter. It happened to be a bael tree. I had shot a deer that day but I had no time to take it home. I bundled it up and tied it to a branch on the tree. As I was tormented by hunger and thirst, I kept awake throughout the night. I shed profuse tears when I thought of my poor wife and children who were starving and anxiously awaiting my return. To pass away the time that night I engaged myself in plucking the bael leaves and dropping them down onto the ground. "The day dawned. I returned home and sold the deer. I bought some food for myself and for my family. I was about to break my fast when a stranger came to me, begging for food. I served him first and then took my food.

"At the time of death, I saw two messengers of Lord Shiva. They were sent down to conduct my soul to the abode of Lord Shiva. I learnt then for the first time of the great merit I had earned by the unconscious worship of Lord Shiva during the night of Shivaratri. They told me that there was a Lingam at the bottom of the tree. The leaves I dropped fell on the Lingam. My tears which I had shed out of pure sorrow for my family fell onto the Lingam and washed it. And I had fasted all day and all night. Thus did I unconsciously worship the Lord. "I lived in the abode of the Lord and enjoyed divine bliss for long ages. I am now reborn as Chitrabhanu."

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